Wednesday, June 30, 2010

भगवदसुमरिन का,


परिस्थितियों में सम रहने की सजगता का, परमात्म-विश्रान्ति का, आकाश में

एकटक निहारने का, श्वासोच्छवास में सोऽहं जप द्वारा समाधि-सुख में जाने का

आदरसहित अभ्यास करना। कभी-कभी एकांत में समय गुजारना, विचार करना कि इतना

मिल गया आखिर क्या ? अपने को स्वार्थ

... से बचाना। स्वार्थरहित कार्य ईश्वर को कर्जदार बना देता है
आत्मवेत्ता महापुरुष जब हमारे अन्तःकरण का संचालन करते हैं, तभी अन्तःकरण परमात्म-तत्त्व में स्थित हो सकता है, नहीं तो किसी अवस्था में, मान्यता में, वृत्ति में, आदत में साधक रुक जाता है। । उससे आगे जाना है तो महापुरुषों के आगे बिल्कुल 'मर जाना' पड़ेगा। ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के हाथों में जब हमारे 'मैं' की लगाम आती है, तब आगे की यात्रा आती है।
सब दुःखों की एक दवाई




अपने आपको जानो भाई।
यदि तुम सदैव प्रसन्न रहना चाहते हो तो यह अदभुत मंत्र याद रखो। 'यह भी बीत जायेगा।' इसे सदा के लिए अपने हृदय पटल पर अंकित कर दो। यह वह मंत्र है, जिसके अभ्यास से मनुष्य सुख-दुःख के समय स्वयं को सँभालकर सावधान हो सकता है और उसमें फँसने से बच सकता है, समरसता के परम सुख में प्रतिष्ठित हो सकता है।

Monday, June 28, 2010

प्रार्थना

प्रार्थना




गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।



गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।



ध्यानमूलं गुरोर्मूतिः पूजामूलम गुरो पदम्।



मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा।।



अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।



तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।



त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।



त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देव देव।।



ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।



द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्।



एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं



भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि।।



ॐ गुरु ॐ गुरु
संसार में माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी के सम्बन्ध की तरह गुरु-शिष्य का सम्बन्ध भी एक सम्बन्ध ही है लेकिन अन्य सब सम्बन्ध बन्धन बढ़ाने वाले हैं जबकि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध सम बन्धनों से मुक्ति दिलाता है। यह सम्बन्ध एक ऐसा सम्बन्ध है जो सब बन्धनों से छुड़ाकर अन्त में आप भी हट जाता है और जीव को अपने शिवस्वरूप का अनुभव करा देता है।