Sunday, December 27, 2009

इस संसार रूपी अरण्य में कदम-कदम पर काँटे बिखरे पड़े हैं। अपने पावन दृष्टिकोण से तू उन काँटो और केंकड़ों से आकीर्ण मार्ग को अपना साधन बना लेना। विघ्न मुसीबत आये तब तू वैराग्य जगा लेना। सुख व अनुकूलता में अपना सेवाभाव बढ़ा लेना। बीच-बीच में अपने आत्म-स्वरूप में गोता लगाते रहना, आत्म-विश्रान्ति पाते रहना।
हे वत्स ! हे साधक ! अब मैं तुझे संसार रूपी अरण्य में अकेला छोड़ दूँ फिर भी मुझे फिकर नहीं। क्योंकि अब मुझे तुझ पर विश्वास है कि तू विघ्न-बाधाओं को चीरकर आगे बढ़ जायेगा। संसार के तमाम आकर्षणों को तू अपने पैरों तले कुचल डालेगा। विघ्न और विरोध तेरी सुषुप्त शक्ति को जगायेंगे। बाधाएँ तेरे भीतर कायरता को नहीं अपितु आत्मबल को जन्म देगी।
‘हे प्रभु ! हे दया के सागर ! तेरे द्वार पर आये हैं । तेरे पास कोई कमी नहीं । तू हमें बल दे, तू हमें हिम्मत दे कि तेरे मार्ग पर कदम रखे हैं तो पँहुचकर ही रहें । हे मेरे प्रभु ! देह की ममता को तोड़कर तेरे साथ अपने दिल को जोड़ लें

Thursday, December 24, 2009

भूलो सभी को मगर, माँ-बाप को भूलना नहीं।


उपकार अगणित हैं उनके, इस बात को भूलना नहीं।।

पत्थर पूजे कई तुम्हारे, जन्म के खातिर अरे।

पत्थर बन माँ-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।।

मुख का निवाला दे अरे, जिनने तुम्हें बड़ा किया।... See More

अमृत पिलाया तुमको जहर, उनको उगलना नहीं।।

कितने लड़ाए लाड़ सब, अरमान भी पूरे किये।

पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।।

लाखों कमाते हो भले, माँ-बाप से ज्यादा नहीं।

सेवा बिना सब राख है, मद में कभी फूलना नहीं।।

सन्तान से सेवा चाहो, सन्तान बन सेवा करो।

जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।।

सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह।

माँ की अमीमय आँखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।।

जिसने बिछाये फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में।

उस राहबर के राह के, कंटक कभी बनना नहीं।।

धन तो मिल जायेगा मगर, माँ-बाप क्या मिल पायेंगे?

पल पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।

Wednesday, December 23, 2009

सदा स्मरण रहे कि इधर-उधर भटकती वृत्तियों के साथ तुम्हारी शक्ति भी बिखरती रहती है। अतः वृत्तियों को बहकाओ नहीं। तमाम वृत्तियों को एकत्रित करके साधना-काल में आत्मचिन्तन में लगाओ और व्यवहार-काल में जो कार्य करते हो उसमें लगाओ। दत्तचित्त होकर हर कोई कार्य करो। सदा शान्त वृत्ति धारण करने का अभ्यास करो।
मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया


जो भी अपने पास है वह धन किसी का है दिया



देने वाले ने दिया वह भी दिया किस शान से

मेरा है यह लेने वाला कह उठा अभिमान से

मेरा है यह कहने वाला मन किसी का है दिया

मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया ...



जो मिला है वह हमेशा पास रह सकता नहीं

कब बिछुड़ जाये यह कोई राज़ कह सकता नहीं

ज़िन्दगानी का खिला मधुबन किसी का है दिया

मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया ...



जग की सेवा, खोज अपनी, प्रीति प्रभु से कीजिये

ज़िन्दगी का राज़ है यह जान कर जी लीजिये

साधना की राह पर साधन किसी का है दिया (२)

मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया

जो भी अपने पास है वह धन किसी का है दिया



मैं नहीं मेरा नहीं यह तन किसी का है दिया
आया जहाँ से सैर करने, हे मुसाफिर ! तू यहाँ। था सैर करके लौट जाना, युक्त तुझको फिर वहाँ। तू सैर करना भूलकर, निज घर बनाकर टिक गया। कर याद अपने देश की, परदेश में क्यों रुक गया।। फँसकर अविद्या जाल में, आनन्द अपना खो दिया। नहाकर जगत मल सिन्धु में, रंग रूप सुन्दर धो दिया। निःशोक है तू सर्वदा, क्यों मोह वश पागल भया। तज दे मुसाफिर ! नींद, जग, अब भी न तेरा कुछ गया।।
मेरा अपना अबतक का अनुभव है कि जो हम चाहते हैं, वह न हो, इसीमें हमारा हित है. हमने तो जबतक अपने मन की मानी है, अपने मन की बात की है तो सिवाय पतन के, सिवाय अवनति के हमें तो कुछ परिणाम में मिला नहीं ..........मैं आपके सामने अपनी अनुभूति निवेदन कर रहा हूँ , और इससे लाभ उठाना चाहते हैं तो अपनी चाही मत करो .प्रभु की चाही होने दो . प्रभु वही चाहते हैं जो अपने-आप हो रहा है
जो बिना सीखे हो, वही सच्चा ’ज्ञान’ है अर्थात् स्वभावत: आ जाय । जो बिना हेतु के हो, वही सच्चा ’प्रेम’ है । और जो बिना किये हो, वही सच्चा ’त्याग’ है, क्योंकि सच्चा त्याग करना नहीं पड़ता, हो जाता है
हम अपने लिये यह करेंगे, इससे हमें कुछ मिलेगा, हमें जगत से कुछ मिलेगा, हमें प्रभु से कुछ मिलेगा । तो जबतक ये बातें जीवन में रहेती हैं, तबतक विश्राम नहीं मिलता
विश्राम के लिये यह महामन्त्र अपनाना अनिवार्य है कि अपने लिये कभी कुछ नहीं करना है और न आज तक किया हुआ अपने काम आया है । कर्म का परिणाम जो कुछ होता है, उसकी पहुँच शरीर तक ही रहती है
मन, वाणी, कर्म से अगर हम बुराई रहित हो जायँ तो यह सारे 'विश्व की सेवा' कहलाती है । ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार दूसरों के काम आ जायँ तो यह 'समाज सेवा' कहलाती है । यदि अचाह हो जायँ तो यह 'अपनी सेवा' कहलाती है । यदि हुम प्रभु की प्रियता प्राप्त कर ले तो यह 'प्रभु की सेवा' कहलाती है -
ध्यान किसी का नहीं करना है । किसी का ध्यान नहीं करोगे तो परमात्मा का ध्यान हो जायगा । और किसी का ध्यान करोगे, तो फिर किसी और का ही ध्यानमात्र रह जायगा ।
समस्त विश्व मिलकर भी साधक की वास्तविक मांग को पूरा नहीं कर सकता । इस दृष्टि से साधक का मूल्य सृष्टि से अधिक है
विवेक के प्रकाश को ही जब किसी भाषा-विशेष या लिपि-विशेष में आबद्ध कर देते है, तो वह ’ग्रन्थ’ कहलाता है और जब उस विवेक के प्रकाश को किसी जीव में देखते हैं, तो उसे ’संत’ कहने लगते है
जीवन क्या है ? जीवन शब्द का अर्थ है, जो अविनाशी हो, नष्ट न हो सकता हो, सदैव हो, वही जीवन है । जो चीज अपने में होती है, उसके लिए पराश्रय अपेक्षित नहीं होता है । अत: जीवन के लिए पराश्रय और परिश्रम अपेक्षित नहीं है । निर्मम और निष्काम होकर मनुष्य अपने में सन्तुष्ट हो जाय, तो उसे जीवन मिल जाता है
दु:ख क्यों होता है ? मनुष्य जब सुख का उपभोग करता है तो उसको दु:ख होता है । सुख का उपभोग करना छोड़ दो, दु:ख होगा ही नहीं ।

 Why do we get sorrowful/grief ? it is only when man takes enjoyment in pleasures that he gets sorrowful. If we leave taking the enjoyment of pleasures - sorrow can never come.
प्रेम एक से ही सम्भव है, अनेक से नहीं । प्रेमी को तो एक में अनेक और अनेक में एक का स्वाभाविक, बिना यत्न किये, अनुभव होता है ।

 Love is possible with only One, not with many. The lover experiences the One in many and many in the One, naturally, without any effort
मैं उनका हूँ और वे मेरे हैं - इस भाव के दृढ़ होने पर उनकी याद अपने आप आती है और उनके बिना किसी प्रकार चैन नहीं पड़ती । वह मेरे है, इस भाव का दृढ़ होने पर उनका ध्यान अपने आप होता है ।

 'I am His and He is mine' - as soon as this acceptance is firm, His remembrance will come naturally and you will not be a peace without Him.... 'He is mine', with this acceptance being firm His concentration happens by itself.
संसार असत् नहीं है । वह मेरे प्यारे प्रभु का स्वरूप है तो असत् कैसे हो सकता है ? उससे जो संबन्ध माना है, वह संबन्ध असत् है । वह संबन्ध रहेगा नहीं । The world is not Unreal. It is the form of my Beloved Lord - how can it be Unreal. The relation (me and mine) that we have made with it, that is Unreal. That relation will never remain.
सुख और दुःख बीज और वृक्ष के समान है । सुख रूप बीज से दुःख रूप वृक्ष हरा भरा होता है
मेरे नाथ !


आप अपनी सुधामयी,

सर्व समर्थ,

पतित पावनी,

अहैतु की कृपा से

मानवमात्र को विवेक का आदर

तथा बल का सदुपयोग करने की सामर्थ्य प्रदान करें

एवं

हे करुणासागर !

अपनी अपार करुणा से शीघ्र ही

राग द्वेष का नाश करें


सभी का जीवन सेवा, त्याग, प्रेम से परिपूर्ण हो जाए
जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए निश्चयबल को जगाओ। सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो। आत्मा में अथाह सामर्थ्य है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो विश्व में ऐसी कोई सत्ता नहीं जो तुम्हें ऊपर उठा सके। अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गये तो त्रिलोकी में ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके।

Friday, December 4, 2009

तुम कब तक बाहर के सहारे लेते रहोगे ? एक ही समर्थ का सहारा ले लो। वह परम समर्थ परमात्मा है। उससे प्रीति करने लग जाओ। उस पर तुम अपने जीवन की बागडोर छोड़ दो। तुम निश्चिन्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा अदभुत काम होने लगेंगे