Thursday, April 29, 2010

भूल से उत्पन्न हुई असावधानी और असावधानी से उत्पन्न एवं पोषित दोषों को मिटाने में अपने को असमर्थ स्वीकार करना और नित्य प्राप्त,स्वत: सिद्ध निर्दोषता से निराश होना मानव-जीवन का घोर अनादर है।यह नियम है कि जो अपना आदर नहीं करता,उसका कोई आदर नहीं करता।अपने आदर का अर्थ दूसरों का अनादर नहीं है,अपितु दूसरों के अनादर से तो अपना ही अनादर होने लगता है;क्योंकि जो किसी को भी दोषी मानता है,वह स्वयं निर्दोष नहीं हो सकता।
जबतक तुम्हारा हृदय मलिन है, जबतक तुम लुक-छिपकर पाप करते हो, तबतक मानसिक अशान्ति, संताप और नरक-दुःख से कदापि नहीं बच सकते।

Wednesday, April 28, 2010

badi badi madhur badhur teri vani , badi kalyani yah vardani , sabko poavan karti ho jogi , jogi re kya jadu hai tere pyar me ,tera nam hai bhavdukh tari , tu hame lage tprurari ,sabi dev tume mi basate jogi re kya jadu hai tere pyar me
ડગમગતો પગ રાખ તું સ્થિર મુજ, દુર નજર છો ન જાયે, દૂર માર્ગ જોવા લોભ લગીર ના, મારે એક ડગલું બસ થાય, મારો જીવનપન્થ ઉજાળ
પોતાના ગુણો પોતે જ કહેવા ન જોઈએ. પણ યુક્તિપૂર્વક બીજા લોકો વર્ણવે તેમ કરવું જોઈએ
દરેક માણસના સ્વભાવની પરીક્ષા સૌથી પહેલી થાય છે, બીજા ગુણોની નહિ. કારણ કે બીજા બધા ગુણોને પાછળ રાખી દઈને માણસનો સ્વભાવ જ આગળ તરી આવે છે
वृक्ष के समान सहनशील हों।पत्थर मारनेवाले को फल दें,काटकर जला देनेवालेकी रोटी पका दें।चीरकर काट देनेवालेका दरवाजा,चौखट,छ्त बन जायँ।बिना किसी भेदके सबको छाया दें,जात-पात का भेद कुछ न मानें।
यदि तुम अपने लक्ष्य को - भगवान् को कभी न भूलते हुए सदा निर्लेप तथा सावधान रहकर भगवान् की ओर चलते रहोगे तो यह मानव-शरीर तुम्हें निश्चय ही वहाँ पहुँचाने में समर्थ होगा।
भयंकर से भयंकर परिस्थिति आ जाय,तब भी कह दो-"आओ मेरे प्यारे!आओ,आओ,आओ।तुम कोई और नहीं हो।मैं तुम्हें जानता हूँ।तुमने मेरे लिये आवश्यक समझा होगा कि मैं दु:ख के वेश में आऊँ,इसलिये तुम दु:ख के वेश में आये हो।स्वागतम्!वैलकम्! आओ आओ चले आओ!" आप देखेंगे कि वह प्रतिकूलता आपके लिये इतनी उपयोगी सिद्ध होगी कि जिस पर अनेकों अनुकूलतायें निछावर की जा सकती है।
तुम अपने आप हो आत्मा, दूसरा है शरीर। स्व है आत्मा और पर है शरीर। शरीर के लिए सन्देह रहेगा कि यह शरीर कैसा रहेगा ? बुढ़ापा अच्छा जाएगा कि नहीं ? मृत्यु कैसी होगी ? लेकिन आत्मा के बारे में ऐसा कोई सन्देह, चिन्ता या भय नहीं होगा। आत्म-स्वरूप से अगर मैं की स्मृति हो जाए तो फिर बुढ़ापा जैसे जाता हो, जाय.... जवानी जैसे जाती हो, जाय.... बचपन जैसे जाता हो, जाय.....

Monday, April 26, 2010

रीत-रिवाज जानने वाले लोग बहुत हैं, यज्ञ याग करके सिद्धियाँ पाने की इच्छावाले लोग बहुत हो सकते हैं। भगवान की प्रीति के लिए जो कर्म करते हैं, यज्ञ करते हैं वे विरले हैं। काम-विकार से प्रेरित होकर बच्चों को जन्म देने वाले लोग तो कई होते हैं, भगवान की प्रसन्नता के लिए संसार का कार्य करने वाले कोई विरले हैं। जो कुछ करो, भगवान की प्रसन्नता के लिए करो।
जब तक सुख भोग और आराम का उद्देश्य है, सुख भोग और आराम की अंदर में आसक्ति है, उसकी महत्ता है तब तक पारमार्थिक उद्देश्य बनता ही नहीं। तत्व प्राप्त होते हुए भी अप्राप्त रहता है
आपका जीवन आपकी श्रद्धा के अनुसार ही होगा। जीवन को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को अपना जीवन उत्साह, उमंग एवं उल्लास के साथ जीना चाहिए एवं अपनी शक्तियों पर विश्वास रखकर, सफलता के पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए। श्रद्धा ही हमें सच्चे अर्थ में जीवन जीना सिखाती है। जहाँ से जीवन-प्रवाह चलता है उस शक्ति-स्रोत का द्वार हमारी श्रद्धा ही
जिन्हें अपने जीवन की महानता पर अडिग श्रद्धा थी ऐसे व्यक्ति इतिहास के पन्नों में अमर हो गये हैं। जो ऐसा मानते हैं कि उन्हें कहीं जाना ही है, ऐसे व्यक्तियों के लिए दुनिया अपने-आप रास्ता बना देती है।
O' Lord besides You who else will support us - the poor wretched, suffering ones? After looking at us, now pull us toward your Lotus Feet and place us there. We do not want liberation, we do not want Your abode, we do not want our name in heaven or hell,. You simply make us unconscious and mad in the dust of Your Lotus Feet. On taking Your Name, let tears of joy flow from my eyes, and the voice inarticulate with emotion stalls and the entire body and it's every pour is filled with ecstacy
In difficulties, we remember God. We forget God in the midst of running after worldly sense enjoyments that are temporary and worthless. Therefore inbetween by giving us some difficulties, God is alerting us to not forget Him. Without that our state would be terrible. This human body has not been received for sense enjoyments. It has been received only to realize Me - therefore do not waste it away on useless activities

Saturday, April 24, 2010

केवल भगवान् का आश्रय ले ले तो सदाके लिये मौज हो जाये! स्वप्नमें भी किसीकी किञ्चिन्मात्र भी गरज न रहे! जब किसी-न-किसी का आश्रय लेना ही पड़ता है तो सर्वोपरिका ही आश्रय लें छोटेका आश्रय क्या लें?अत: सबसे पहले ही यह मान लें कि भगवान् हमारे और हम भगवान् के हैं।
हमारेपर भगवान् की कृपानिरन्तर होरही है परहम उधर देखतेही नहीं!हमउस कृपाकी अवज्ञा करते हैं,निरादर करते हैं,फिरभी भगवान् अपना कृपालु स्वभाव नहीं छोड़ते,कृपा करतेही रहते हैं।बालक माँकाकोई कम निरादर नहीं करता।कहीं पेशाब कर देता है,कहीं थूकदेता है पर माँ सब कुछ सहलेती है।हमभी उल्टे चलनेमें बालककी तरह तेज हैं,पर कृपा करनेमें भगवान् भी माँसे कम तेजनहीं हैं! इसलिये हमें उनकी कॄपाका भरोसा रखना चाहिये।

Thursday, April 22, 2010

सुखमें विकास नहींहोता,इसमेंपुराने पुण्य नष्ट होतेहैं और सुखभोगमें उलझ जानेके कारण आगे उन्नतिनहीं होती।जोप्रतिकूलता आनेपरभी साधनकरता रहताहै,वह अनुकूलतामेंभी सुगमतापूर्वकसाधन करसकता है।इसलियेगृहस्थका उद्धारजल्दीहोताहै,परसाधुका उद्धारजल्दीनहींहोता।कारणकि साधुतो थोड़ीभी प्रतिकूलतासह नहींसकता औरप्रतिकूलता आनेपर कमण्डलुउठाकर चलदेता है,पर गृहस्थ प्रतिकूलता आनेपर कहाँ जाय?वह माँ-बाप,स्त्री-पुत्रको कैसे छोड़े?

Tuesday, April 20, 2010

आत्मबल में श्रद्धा उत्पन्न होते ही कायर शूरवीर हो जाते हैं, प्रमादी एवं आलसी उद्यमी हो जाते हैं, मूर्ख विद्वान हो जाते हैं, रोगी निरोग हो जाते हैं, दरिद्र धनवान हो जाते हैं, निर्बल बलवान हो जाते हैं और जीव शिवस्वरूप हो जाते हैं।
हमारे अधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं,जब हमारे साथी कर्तव्य-परायण हों;और हमारे साथियों के अधिकार तभी सुरक्षित होंगे,जब हम कर्तव्यनिष्ठ हों। हमारे कर्तव्यनिष्ठा ही हमारे साथियों में कर्तव्य परायणता उत्पन्न करेगी;क्योंकि, जिसके अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं,उसके हृदय में हमारे प्रति प्रीति स्वत: उत्पन्न हो जाती है,जो उसे कर्तव्य-परायण होने के लिए विवश करे
भगवान् कीतो बड़ी हीदया है।भगवान् यदि मनुष्य-जन्म नहींदेते तोहम स्वयं क्या करसकते थे।उनपरअपना क्याजोर था।हमारा जन्म आर्यावर्तमें हुआ जोकि आध्यात्मिकतासे भरी हुई भूमि है।अन्यत्रकी भूमि भोग-भूमि है।इसके साथ भगवच्चर्चाका अवसर।इतनी बातें एकत्र मिल जानेके बाद कल्याणमें क्या शंका हो सकती है।’कल्याण तो निश्चय ही होगा ’ऐसा माननेमें क्या आपति!
हे नाथ! हमें आपके चरित्र अच्छे लगें,आपकी लीला अच्छी लगे,आपके गुण अच्छे लगे,तो यह आपके कृपा ही है,हमारा कोई बल नहीं है।आज जो हम आपका नाम ले रहे हैं,आपकी चर्चा सुन रहे हैं,आपमें लगे हुए हैं,यह केवल आपकी ही कृपा है।काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद जैसे कितने-कितने अवगुण भरे हुए हैं और कैसा कलियुग का समय है! ऐसे समयमें आपके तरफ वृति होती है तो यह केवल आपकी कृपा है।

Monday, April 19, 2010

मूलस्वरूप में तुम शान्त ब्रह्म हो। अज्ञानवश देह में आ गये और अनुकूलता मिली तो वृत्ति एक प्रकार की होगी, प्रतिकूलता मिली तो वृत्ति दूसरे प्रकार की होगी, साधन-भजन मिला, सेवा मिली तो वृत्ति थोड़ी सूक्ष्म बन जाएगी। जब अपने को ब्रह्मस्वरूप में जान लिया तो बेड़ा पार हो जाएगा। फिर हाँ हाँ सबकी करेंगे लेकिन गली अपनी नहीं भूलेंगे।
 वे सत्पुरूष क्यों हैं ? कुदरत जिसकी सत्ता से चलती है उस सत्य में वे टिके हैं इसलिए सत्पुरूष हैं। हम लोग साधारण क्यों हैं ? हम लोग परिवर्तनशील, नश्वर, साधारण चीजों में उलझे हुए हैं इसलिए साधारण हैं।
संतोंके दर्शन,स्पर्श,उपदेश-श्रवण और चरणधूलिके सिर चढ़ानेकी बात तो दूर रही,जो कभी अपने मनसे संतोंका चिन्तन भी कर लेता है,वही शुद्धान्त:करण होकर भगव्तप्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।
हे प्रभो! थोड़ी-सी योग्यताआते ही हमेंअभिमान होजाता है! योग्यतातो थोड़ी होती है,पर मान लेते हैंकि हमतो बहुत बड़े होगये,बड़े भक्त बन गये,बड़े त्यागी,बन गये!भीतरमें यह अभिमानभरा है नाथ! आपकी ऐसीबात सुनी हैकि आप अभिमानसे द्वेश करते हो और दैन्यसे प्रेम करते हो।अगर आपको अभिमान सुहाता नहीं हैतो फिरउसको मिटादो,दूर करदो।बालककीचड़से सना होऔर गोदीमें जाना चाहता होतो
पानी तो वही का वही लेकिन समयानुसार उपयोग का असर पृथक-पृथक होता है। ऐसे ही मन तो वही, शरीर भी वही लेकिन किस समय शरीर से, मन से क्या काम लेना है इस प्रकार का ज्ञान जिसके पास है वह मुक्त हो जाता है। अन्यथा कितने ही मंदिर-मस्जिदों में जोड़ो एवं नाक रगड़ो, दुःख और चिन्ता तो बनी ही रहेगी।




कभी न छूटे पिण्ड दुःखों से।



जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं।।
कई प्रकार के कर्म होते हैं , लेकिन भगवान और संत से निगुरों , सगुरे की मुलाकात करना कितनी बड़ी सेवा है ….


वाह- वाही के लिए , चाटुकारी के लिए तो नेता भी सेवा कर लेता है , रोटी के टुकड़े के लिए तो कुत्ता भी पूछ हिला देता है …लेकिन मान – अपमान , ठंडी -गर्मी , आंधी -तूफ़ान
अपने लिए तो कई जिंदगी बर्बाद हो गयी , लेकिन धर्म के लिए ….धर्मं के लिए गांधीजी भी जेल गए , नानक भी तो गए , बाबर ने नानक जी को जेल डाला ….फिर भी नानक अभी भी हमारे दिलों में आदरणीय हैं …..ऐसे ही बुद्ध कितना दुष्ट लोगों ने


ऐसे ही बुद्ध कितना दुष्ट लोगों ने साजिशें की …..वैश्या आके बोलती थी बुद्ध तो मेरे साथ ही सोते हैं ….गुनाह तो किसी ने किया , आरोप बुद्ध पर आ गए …..
लोगों को भगवान से जोड़ना और संत वाणी से जोड़ना ये अपने आप में बड़ी सेवा है ….


तीर्थ नहाये एक फल , संत मिले फल चार

सदगुरु मिले अनंत फल , कहत कबीर विचार

Sunday, April 18, 2010

Kis tarah ladatee rahi ho, Pyaas se parchhaiyon se, Neend se , angadaiyon se, Maut se aur zindagi se, Teej se ,tanahaiyon se. kab tak ladte rahoge , jiwan me bhar lo ujale ,kar do roshan apni rahe , prabhu prem se Guru Giyan se
जो मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ रहेगा उस आत्मा का ज्ञान कर लो…जीवन लाचार मोहताज हो जाये उसके पहले जीवन मे परमात्म सुख की पूंजी इकठ्ठी कर लो…।lकर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना हैखिला पिला के देह बढाई वो भी अग्नि मे जलाना है…कर सत्संग अभी से प्यारे नही तो फिर पछताना है॥

Saturday, April 17, 2010

सजदा

 मै सोचता हु हज को न आऊ न जाऊ काशी और मथुरा और ना चारो धाम पहले खुद को पवित्र तो कर लू मन से और तन से सच्ची भावनाओ के स्पर्श से .. मै वैसे ही आ जाऊ तेरे पास जैसा तुने भेजा था पाक , पवित्र , कोमल , सच्चा ,.. फिर आ जाऊंगा तेरे पास सिर्फ एक इल्तजा है मेरी मेरा सजदा कुबुल कर ले
निर्दोषता की अभिव्यक्ति तभी सुरक्षित रह सकती है,जब किसी के प्रति वैर-भाव की गन्ध तक न रहे।यह तभी सम्भव है जब किसी के प्रति भी दोषी भाव न रहे,अर्थात् अपने प्रति होने वाली बुराई का कारण भी अपने को ही मान लिया जाय।जिन्हें दोषी मान लिया है,यदि किसी कारण उन्हें निर्दोष माननेमें असमर्थता प्रतीत हो,तो उन्हें अनजान बालककी भाँति क्षमा कर दिया जाय।
संत जो यथार्थ मे ईशवर के अवतार होते है, जो बन्धनो व इच्छाओ से मुक्त होते है, वे संसार के उत्थान के लिए बिना किसी स्वार्थ के प्रकट होते है I

प्रेम

सभीको प्रेमभरी मधुरता और सहानुभूतिभरी आँखोंसे देखो। याद रखो- सुखी जीवनके लिये प्रेम ही असली खुराक है। संसार इसीकी भूखसे मर रहा है! अतएव प्रेम वितरण करो- अपने हॄदयके प्रेमको हृदयमें ही मत छिपा रखो। उसे उदारताके साथ बाँटो। जगत्का बहुत-सा दु:ख दूर हो जायगा।

शरण

यदि कहें कि किस बातको लेकर खुश रहें तो इसका उत्तर यह है कि भगवान् की दयाको देख-देखकर।देखो,भगवान् की तुमपर कितनी दया है। अपार दया समझकर इतना आनन्द होना चाहिये कि वह हृदयमें समावे नहीं।हर समय आनन्दमें मुग्ध रहें।बार-बार प्रसन्न होवें।अहा प्रभुकी कितनी दया है।यही सबसे बढ़कर साधन है और यही भक्ति है एवं इसीका नाम शरण है।

Wednesday, April 14, 2010

पिघले हुए चपड़ेमें जैसा भी रंग डाल दिया जाय,वह वैसा ही रंग वाला बन जाता है।इसी तरह किसीका हृदय जब पिघल जाता है तब बहुत ही अच्छा रंग चढ़ता है।जिन पुरुषोंका हृदय भगवान् के विरह की व्याकुलता में पिघला है,उनके चरित्र को करुणाभाव या प्रेमभाव से याद करे।ऐसा करने से हृदय एकदम पिघल जाता है।यदि आदमी का हृदय व्याकुल हो जाय तो उसका जीवन बहुत ही बदल जाय।
को काहू को नहीं सुख दुःख करी दाता।




निज कृत कर्म हि भोगत भ्राता।।

Tuesday, April 13, 2010

अपने से सुखियों को देखकर आप प्रसन्न हो जायं।अपने से दुखियों को देख कर आप करुणित हो जायं।जिस हृदय में करुणा निवास करती है उस हृदयमें भोग की रुचि नहीं रहती।और जिस चित्त में प्रसन्नता निवास करती है,उसमें काम की उत्पति नहीं होती।आप हो जायेंगे भोग की वासना से रहित और काम से रहित।यह भौतिक जीवन की पराकाष्टा हो गई।
समस्त जगत्को भगवान् की प्रजा समझकर प्रेम करे तथा इससे बढ़कर सबको अपनी आत्मा समझकर प्रेम करे और इससे भी बढ़कर सबको भगवत्स्वरुप समझकर प्रेम करना चाहिये।

Monday, April 12, 2010

जैसे बच्चा माँसे दूर चला जाय तो माँ को उसकी बहुत याद आती है।माताओं की ऐसी बात सुनी हैं।दीपावली,अक्षय तृतीया आदि त्यौहार आते हैं तो माताएँ कहती हैं कि क्या बनायें? लड़का तो घर पर है नहीं,अच्छी चीज बनाकर किसको खिलायें?ऐसे ही भगवान् के लड़के हमलोग चले गये विदेशमें!अब भगवान् कहते हैं कि क्या करुँ?क्या दूँ?लड़का तो घरपर ही नही है!वह तो धन-सम्पति की तरफ लगा है,खेल-कू


वह तो धन-सम्पति की तरफ लगा है,खेल-कूद में लगा है!

तुम यदि अपनेको भगवान् के प्रति सौंप देते हो,अपनी इच्छाओंको भगवान्की इच्छामें मिला देते हो एवं अपने ज्ञान और बलको भगवान् के ज्ञान और बल का अंश मान लेते हो तो निश्चय समझो-फिर तुम भगवान् की मङ्गलमयी इच्छासे मङ्गलमय बनकर केवल अपना ही कल्याण नहीं करोगे;तुम्हारा प्रत्येक विचार,तुम्हारा प्रत्येक निश्चय और तुम्हारी प्रत्येक क्...रिया अखिल जगत् का मङ्गल करोगे
प्रेमकी इति नहीं है।प्रथम भगवान् में प्रेम बढ़ता है तो अश्रुपात होता है,वाणी गद्गद् हो जाती है।जब आगे बढ़ जाता है,तब प्रेम में बेहोश हो जाता है। और आगे बढ़े तो होश आ जाता है फिर भगवान् मिल जाते हैं।
प्रयत्न के बिना कोई भी फल प्रगट नहीं होता। अतः प्रयत्न को उत्पन्न करने वाली आत्मश्रद्धा का जिसमें अभाव है उसका जीवन निष्क्रिय, निरुत्साही एवं निराशाजनक हो जाता है। जहाँ-जहाँ कोई छोटा-बड़ा प्रयत्न होता है वहाँ-वहाँ उसके मूल में आत्मश्रद्धा ही स्थित होती है और अंतःकरण में जब तक आत्मश्रद्धा स्थित होती है तब तक प्रयत्नों का प्रवाह अखंड रूप से बहता रहता है

Saturday, April 10, 2010

जो तुम्हारे दिल को चेतना देकर धड़कन दिलाता है, तुम्हारी आँखों को निहारने की शक्ति देता है, तुम्हारे कानों को सुनने की सत्ता देता है, तुम्हारी नासिका को सूँघने की सत्ता देता है और मन को संकल्प-विकल्प करने की स्फुरणा देता है उसे भरपूर स्नेह करो। तुम्हारी 'मैं....मैं...' जहाँ से स्फुरित होकर आ रही है उस उदगम स्थान को नहीं भी जानते हो फिर भी उसे धन्यवाद देते हुए स्नेह करो।
जिस समय अपने दोष का दर्षन हो जाय,समझ लो,तुम जैसा विचारशील कोई नहीं।और जिस समय पर-दोष-दर्षन हो,उस समय समझ लो कि हमारे जैसा बेसमझ कोई नहीं।बे-समझ की सबसे बड़ी पहिचान है कि जो पराये दोष का पण्डित हो।और भैया,विचारशील की कसौटी है,कि जो अपने दोष का ज्ञाता हो।
Guruvar teri charano ki pag dhul jo mil jaye


such kehta hu tumse takdir badal jaye

Sunate hai tari rehmat din rat barasati hai

ek bund jo mil jaye jivan hi bada jaye ...Guruvar..teri..................

Najaro se girana na chahe jitni saja denaaaaaaa

najaro se jo gir jaye muskil hi samhal payeyyyyyyyy.....Guruvar teri........
जिस समय अपने दोष का दर्षन हो जाय,समझ लो,तुम जैसा विचारशील कोई नहीं।और जिस समय पर-दोष-दर्षन हो,उस समय समझ लो कि हमारे जैसा बेसमझ कोई नहीं।बे-समझ की सबसे बड़ी पहिचान है कि जो पराये दोष का पण्डित हो।और भैया,विचारशील की कसौटी है,कि जो अपने दोष का ज्ञाता हो।

Friday, April 9, 2010

बालक जबतक जीता है, चाहे बड़ा हो जाये, माँ रक्षा करती ही है इश्वररुपी माँ मरनेवाली नहीं है, इसलिए हमें चिन्ता नहीं करनी चाहिए


हर स्थिति में हर जगहप्रभु की सहज कृपा पर विश्वाश करने वाले भक्त को प्रत्येक परिस्थिति में उनकी अनुकम्पा का अनुभव होता हैं. स्थितिया बदलती रहते हैं परन्तु उसे अटल विश्वास रहता हैं की प्रभु सदेव उसका कल्याण ही करते हैं , इसलिए वहा सर्वदा प्रमुदित रहता हैं.

भगवान् से कह दो-"हे प्रेमास्पद! भोग और मोक्ष की भूख मिटा दो, प्रियता की भूख जगा दो,अपने निर्मित जीवन को अपने लिये उपयोगी बना लो"। वे व्यथित हॄदय की पुकार शीघ्र सुनते हैं,यह निर्विवाद सत्य है। यद्दपि वे स्वत: सब कुछ जानते हैं,फिर भी व्यथित हृदय से पुकारती रहो।जैसे रखें वैसे रहो,पर अनेक रुपों में उन्हीं को देखते हुए अनेक प्रकार से उन्हीं को लाड़ लड़ओ।वे सदैव तुम्हारे और तुम उनकी हो।

Wednesday, April 7, 2010

भगवान् को प्राप्त करने का सबसे बढ़कर सरल उपाय है भगवान् के ऊपर निर्भर हो जाना,उनको सब कुछ समर्पण कर देना,अपने आप को भी भगवान् को समर्पण कर देना
मन्द-मन्द वर्षा हो रही है।प्रत्येक बूँद उनकी अहैतुकी कृपा का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर कृतकृत्य कर रही है।न जाने उन्हें अपने शरणागतों की हर चीज इतनी प्यारी क्यों लगती है! इतना ही नहीं,अपने दिये हुए को पाकर ही क्यों बिक जाते हैं!और पतित-से-पतित प्राणियों को भी अपनाने के लिये क्यों आकुल हैं! न जाने साधक प्रमादवश क्यों नहीं उन्हें अप...ना मानता?  पर वे तो सर्वदा सभी के सब कुछ होने के लिये तत्पर हैं।

Tuesday, April 6, 2010

जब गुरु करुणा करेंगे केवल तभी सांसारिक जीवन सुखी होगा;जो कार्य कभी भी होने संभव नहीं थे,वह सहज ही पूर्ण हो जायेंगे और क्षण भर में वे तुम्हे भव सागर के उस पार ले जायेंगे
प्रश्न-संसारका सुख लेना कैसे मिटे?.....आप अपना पूरा बल लगायें।फिर भी न मिटे तो ’हे नाथ! हे नाथ!’ कहकर भगवान् को पुकारें।एक तो सांसारिक सुखासक्ति को मिटानेकी चाहना नहीं है और एक हम उसको मिटाते नहीं हैं ये दो बाधाएँ है।ये दोनों बाधाएँ हट जायँ,फिर भी सुखासक्ति न मिटे तो उस समय आप स्वत: परमात्मा को पुका...र उठोगे। सज्जनों उस प्रभुके आगे रो पड़ो तो सब काम हो जायेगा।
नाम से मुझे बहुत लाभ हुआ। कई बार मुझे गिरने से बचाया, लोभ से बचाया। अनुभव तो क्या बतायें। जप करके अनुभव कर लें। नाम से सब कामनाओं की सिद्धि हो सकती है। भगवन्नाम और कृपा -- ये दो चीज जैसी परमार्थ में सहायक होती हैं और मेरे हुई हैं वैसी दूसरी नहीं। नाम सब कुछ करने में समर्थ है।
दूसरेके द्वारा तुम्हारा कभी कोई अनिष्ट हो जाय तो उसके लिए दुःख न करो; उससे अपने किये हुआ बुरे कर्मका फल समझो, यह विचार कभी मनमें मत आने दो कि " अमुकने मेरा अनिष्ट कर दिया है," यह निश्चय समझो कि ईश्वरके दरबारमें अन्याय नहीं होता... वह पूर्वक्रुक्त कर्मोका फल है.
अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती परमात्म सत्ता ज्यों की त्यों रहेती है.. अपना ज्ञान स्वभाव नित्य अवतरित होता रहेता सभी परिस्थितियों में… उस से ही परिस्थितियों का पता चलता है.. परिस्थितियाँ बदल जाती लेकिन परमात्मा ज्यों का त्यों रहेता है..
अब समझो की इस मनुष्य देह से विशेष सम्बन्ध नहीं …जैसे और देह छुट गया ऐसे ये भी छुट जाएगा…जहां जाना है वहाँ पहुँचने के लिए जैसे बस से जाते तो पहुँचने पर बस छोड़ देते ऐसे इस शरीर को छोड़ देंगे..ऐसे शरीर सबंध को छोड़ देंगे…इन को साथ नहीं रख सकते…आप तो असल में चैत्यन्य है लेकिन जुड़ते संबंधो से…मनुष्य देह में आये.. ये सदा साथ नहीं रहेता… ऐसे शरीर के संबंधो को सदा साथ में नहीं रख सकते.. जो सदा साथ है, उस को कभी छोड़ नही सकते, तो जिस को छोड़ नहीं सकते उस को ‘मैं ’ मानने में क्या आपत्ति है? उस को अपना ‘मैं ’ मानो… जिस को नहीं रख सकते उस की आसक्ति छोड़ दीजिये…
शरीर के तो करोडो करोडो बार जन्म हुए, मृत्यु हुयी… केवल ये ना-समझी है की , ‘मैं ’ दुखी हूँ.. ‘मैं ’ बच्चा हूँ.. ‘मैं ’ फलानी जाती का हूँ.. ये सभी व्यवहार की रमणा है..अपना व्यवहार चलाने के लिए बाहर से चले लेकिन अन्दर से जाने की “सोऽहं.. सोऽहं” मैं वो ही हूँ!..सत -चित-आनंद स्वरुप!….जो पहेले था, बाद में भी रहेगा वो ही मैं अब भी हूँ…

Monday, April 5, 2010

बुराई को बुराई से नहीं बल्कि अच्छाई द्वारा, हिंसा को अंहिसा द्वारा और घृणा को प्रेम से खत्म किया जा सकता है।’अपने शत्रुओं से प्यार करो, ईश्वर में विश्वास करो, भविष्य की चिंता मत करो और दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसे कि तुम उनसे अपेक्षा रखते हो।
जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,


जिस समय समाज में खिंचाव, तनाव व विषयों के भोग का आकर्षण जीव को अपनी महिमा से गिराते हैं, उस समय प्रेमाभक्ति का दान करने वाले तथा जीवन में कदम कदम पर आनंद बिखेरने वाले महापुरूष का अवतार होता है।
दूसरो को हस्साना ,उन्हें ख़ुशी देना यह एक कठोर तपस्या है, जिसकी यह तपस्या सफल हो जाती है ,मालिक उस पर अपनी कृपा की वर्षा करता है.

Sunday, April 4, 2010

संसार में हर वस्तु का मूल्य चुकाना होता हे ! बिना ताप किये कष्ट सहे आप अधिकार, पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, सम्पति, शक्ति प्राप्त नहीं कर सकते, अत: आपको तपस्वी होना चाहिए आलसी, आराम पसंद नहीं! जीवन के समस्त सुख आपके कठोर पर्रिश्रम के नीचे दबे पड़े हैं, इसे हमेशा याद रखिए!
NDप्रेम एक अनुभूति है

शाश्वत रिश्तों के मर्म की

सुर्ख जोड़े में लिपटे गर्व की

विरक्ति से उपजे दर्द की

प्रेम अनुभूति है।



प्रेम एक रिश्ता है

दिलों के इकरार का

ममत्व के दुलार का

मानवता की पुकार का

प्रेम एक रिश्ता है।



प्रेम दिखता है

किसी मासूम-सी मुस्कान में

नवविवाहिता की माँग में

वीरों की आन-बान में

प्रेम दिखता है।



प्रेम की अनुगूँज है

दिल के झंकृ‍त तारों में

बागों में बहारों में

फागुन की मस्त फुहारों में

प्रेम की अनुगूँज है।

Friday, April 2, 2010

हे नाथ! वे दिन कब आयेंगे जब हमारे प्राण आपके चरणों में बस जायेंगे!! हे नाथ! ऐसा कब होगा जब हम आपके हाथों निर्मोल(बिना किसी चाह के) बिक जायेंगे!! हे नाथ!! ऐसा कब होगा जब हम आपकी याद में पूरा जीवन एक क्षण की भाँति बिता देंगे!! हे प्रभु! ऐसा एक क्षण के लिये भी तो नहीं हो पाता!!
निर्भर भक्ति में कुछ नहीं करना पड़ता।बस,केवल निर्भरता को अपने जीवन में उतारना पड़ता है।इस भक्ति में हमारे सामने आदर्श है शिशु।छोटा बच्चा माँ की मार से बचने के लिये भी माँ की ही गोद में घुसता है।जो इस प्रकार निर्भर है भगवान् पर,वही वास्तविक निर्भर है।
अहंकार तथा अपने स्वार्थ का त्याग करके दूसरेका हित कैसे हो?दूसरे का कल्याण कैसे हो?दूसरे को सुख कैसे मिले? अपने तनसे,मनसे,वचनसे,बुद्धिसे,पदसे किसी तरह ही दूसरों को सुख कैसे हो? ऐसा भाव रहेगा तो आप ऐसे निर्मल हो जायँगे कि आपके दर्शनों में भी दूसरे लोग निर्मल हो जायँगे।
जैसे कूड़े-कचरे के स्थान पर बैठोगे तो लोग और कूड़ा-कचरा आपके ऊपर डालेंगे । फूलों के ढेर के पास बैठोगे तो सुगन्ध पाओगे । ऐसे ही देहाध्यास, अहंकार के कूड़े कचरे पर बैठोगे तो मान-अपमान, निन्दा स्तुति, सुख-दुःख आदि द्वन्द्व आप पर प्रभाव डालते रहेंगे और भगवच्चिन्तन, भगवत्स्मरण, ब्रह्मभाव के विचारों में रहोगे तो शांति, अनुपम लाभ और दिव्य आनन्द पाओगे ।

Thursday, April 1, 2010

कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता,


 तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।
मेरे ऐसे दिन कब आयेगे कि देह होते हुए भी मै स्वयं को अपने देह से अनुभव करूँगा ?... एकांत मै बैठा-बैठा मै अपने मन-बुद्धि को पृथक देखते-देखते अपनी आत्मा मे तृप्त होऊगा ?... मे आत्मानंद मे मस्त रहकर संसार के व्यवहार मे निश्चिंत रहूगा ? ... सत्रु और मित्र के व्यवहार को मे खेल सम्जुंगा ?"


अगर मन इन्द्रियों के साथ चलेगा तो समझो परमात्मा रूठे है मन को ऊपर उठाना है तो सत्संग किया, उंचा उठेगा..मन बुध्दी के अनुसार चलेगा..अगर बुध्दी ज्ञान स्वरुप है तो सही निर्णय देगी…जिस के प्रिय भगवान नहीं, जिस के लिए भगवत प्राप्ति मुख्य नही, उस का संग ऐसे ठुकराओ जैसे करोडो वैरी सामने बैठे है यद्यपि वो परम स्नेही हो..

 अनित्यानि शरीराणि बैभवो नैव शाश्वतः।

नित्यं संन्निहितो मृत्युः कर्त्तव्यो धर्मसंग्रहः।।

हम जब जन्मे थे उस समय हमारी जो आयु थी वह आज नहीं है। हम जब यहाँ आये तब जो आयु थी वह अभी नहीं है और अभी जो है वह घर जाते तक उतनी ही नहीं रहेगी।शरीर अनित्य है, वैभव शाश्वत नहीं है। शरीर हर रोज मृत्यु के नजदीक जा रहा है। अतः धर्म का संग्रह कर लेना चाहिए।
बीता हुआ समय लौटकर नहीं आता । जीवन का एक एक क्षण आत्मोपलब्धि, भगवत्प्राप्ति, मुक्ति के साधनों में लगाओ । हमें जो इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि प्राप्त है, जो सुविधा, अनुकूलता प्राप्त है उसका उपयोग वासना-विलास का परित्याग कर भगवान से प्रेम करने में करो । एक क्षण का भी इसमें प्रमाद मत करो । पूरे मन से, सम्पूर्ण बुद्धि से भगवान से जुड़ जाओ । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवा


 इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवान में ही लग जाय । एकमात्र भगवान ही रह जायें, अन्य सब गुम हो जाय

 जीवन में आप जो कुछ करते हो उसका प्रभाव आपके अंतःकरण पर पड़ता है। कोई भी कर्म करते समय उसके प्रभाव को, अपने जीवन पर होने वाले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से निहारना चाहिए । ऐसी सावधानी से हम अपने मन की कुचाल को नियंत्रित कर सकेंगे, इन्द्रियों के स्वछन्द आवेगों को निरुद्ध कर सकेंगे, बुद्धि को सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर सकेंगे ।


 पूरे मन से, सम्पूर्ण बुद्धि से भगवान से जुड़ जाओ । इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भगवान में ही लग जाय । एकमात्र भगवान ही रह जायें, अन्य सब गुम हो जाय । ऐसा कर सको तो जीवन सार्थक है । ऐसा नहीं होगा तो मानव जीवन केवल व्यर्थ ही नहीं गया अपित अनर्थ हो गया । अतः जब तक श्वास चल रहा है, शरीर स्वस्थ है तब तक सुगमता से इस साधन में लग जाओ ।
कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता,


तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।
Puri jindgi laga ke jo kamate hai voh sath nahi jata par Gurudaware jo aap kamate ho voh sadev sath raheta hai , Guru dware pe aap jiwan ki anmol kamai karte hao


voh pa lo use mat gavao , sab lutake bhi yah kama sakte ho to kuch nahi lutaya , par sab kuch kamake bhi agar asli khajana gava diya to samjo sab kuch varth me gava diya

bas khajana to khula pada hai jitna lut sakate ho lut lo jitna kama sakate ho kama lo jiwan ki sham hone se pahele apne asli khajane ko pa lo aap sada hai , chetan rup hai giyan rup hai , apne sat sawabhav se hi aapko sukh milta hai bas ushi sukh ko pahechan lo
दिल में आत्म-साक्षात्कार की योग्यता होने के बाद भी यदि विषय, विकार, काम, क्रोध आदि से आसक्ति नहीं मिटी ।


सागर से नदियाँ भली, जो सबकी प्यास बुझाए।।

ब्रह्मलोक तक जाओ और पुण्यों का क्षय होने पर वापस आओ इससे उचित होगा कि मनुष्य जन्म में ही आत्मज्ञान प्राप्त कर लो ताकि पुनः जन्म-मरण के चक्कर में फँसना ही न पड़े।
मेरा मकान ठीक हो जाए….मेरी नोकरी ठीक हो जाए…मेरा कर्जा ठीक हो जाए..मेरा दूकान ठीक हो जाए..मेरा बेटा ठीक हो जाए…ये ठीक हो जाए,वो ठीक हो जायेवालो ये भी समझ लो की …जो कभी बे-ठीक नहीं होता उस आत्मा में टिकना, उस को आत्म-स्वरुप मानना…तो सब कुछ अपने आप ही ठीक हो जाता है…
भगवान् हमें गोद में लेने के लिये तैयार खड़े हैं,केवल हमें थोड़ा-सा ऊँचा हाथ करना है अथार्त् भगवान् के सम्मुख होना है।हमें भगवान् की कृपा की तरफ देखना है और ’हे मेरे नाथ! हे मेरे नाथ!!’ कहकर भगवान् को पुकारना है।पुकारनेमात्र से भगवान कल्याण कर देते हैं।
अपने को सत्यवादी मान लेने पर ही सत्य बोलने की प्रवृति होती है और सत्य बोलने की प्रवृति से "मैं सत्यवादी हूँ"-इस भाव की दृढ़ता हो जाती है।
विश्वास करो,तुमपर भगवान् की बड़ी कृपा है;तभी तो तुम्हें मनुष्य का देह मिला है।यह और भी विशेष कृपा समझो जो तुम्हें भजन करने की बुद्धि प्राप्त हुई और भजन के लिये सुअवसर मिला।इस सुअवसर को हाथ से मत जाने दो,नहीं तो पछ्तावोगे।
Karni hai khuda se ek guzarish ke Teri Dosti ke siva koi bandgi na mile.. Har janam mein mile dost tere jaisa Ya phir kabhi zindgi na mile
Takdir ne khel se nirash nahi hote zindgi me kabhi udas nahi hote hatho ki lakiro pe yakin mat kr takdir to unki b hoti h jinke hath nahi hote
जीवन में आप जो कुछ करते हो उसका प्रभाव आपके अंतःकरण पर पड़ता है। कोई भी कर्म करते समय उसके प्रभाव को, अपने जीवन पर होने वाले उसके परिणाम को सूक्ष्मता से निहारना चाहिए । ऐसी सावधानी से हम अपने मन की कुचाल को नियंत्रित कर सकेंगे, इन्द्रियों के स्वछन्द आवेगों को निरुद्ध कर सकेंगे, बुद्धि को सत्यस्वरूप आत्मा-परमात्मा में प्रतिष्ठित कर सकेंगे
kitene hi logo ko sukh dukh aata hai par voh aapko farak nahi padata kyoki aap usme jude huwe nahi ho , jab aap judte ho aur use apna manate ho to voh bat aapko sukh aur dukh deti hai par jab tak aap unse nirlep aur nirvikar ho tab voh bat aapko sukh aur dukh nahi deti , karta banana hi dukh ka karna hai aur darshta banana hi sukh ka karan hai bas darshta bane raho aur param ananad aur param sukh ke marg ki aur chal pado jiwan jine ki chah bad jayegi param aanad panae ki rah mil jayegi
कहाँ है वह तलवार जो मुझे मार सके ? कहाँ है वह शस्त्र जो मुझे घायल कर सके ? कहाँ है वह विपत्ति जो मेरी प्रसन्नता को बिगाड़ सके ? कहाँ है वह दुख जो मेरे सुख में विघ्न ड़ाल सके ? मेरे सब भय भाग गये

सब संशय कट गये
मेरा विजय-प्राप्ति का दिन आ पहुँचा है
कोई संसारिक तरंग मेरे निश्छल चित्त को आंदोलित नहीं कर सकती
एक भाई ने मुझसे कहा कि आप मुझे परम आस्तिक क्यों कहते हैं? मैं तो परम आस्तिक नहीं हूँ।मैंने कहा-मैं इसीलिये कहता हूँ कि आप आस्तिक हो जायेंगे।यह कोई कल्पना नहीं है,यह वास्तविकता है।जिसको आप जैसा समझेंगे,जैसा सोचेंगे,जैसा मानेंगे,वैसा वह हो जायेगा।हम किसी को बुरा न समझें।तब किसी के बुरे होने में हमारा हाथ नहीं रहेगा।

Ashram SMS

Jaise sadhana me age badhoge to kabhi vyarth ki ninda hogi us se bhaybhit na hue to bemap prashansha milegi usme bhi ab uljhe to parmatma Sakshaktar ho jayega -

dil

bas dil ko to mandir banana hai aur usme murat sajani hai apne pratam ki voh pritam jo kabhi juda nahi hota , kabhi nahi bichadta , kabhi hamse alag nahi hota , bhichadta hai yah sansar , bhichadti hai yah sansari vastue jo kabhi hamari nahi thi par galti se ham apni samaj bethate hai , jinke liye mare mare firte hai , rat din rote rahate hai voh sab to bichad jayega par jo kabhi nahi bhichdega , kabhi hamese juda nahi hoga use kab ham prit karenge , kab dil me mandir me use sajayenge
प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी के शरणापन्न रहता है। अन्तर केवल इतना है कि आस्तिक एक के और नास्तिक अनेक के। आस्तिक आवश्यक्ता की पूर्ति करता है और नास्तिक इच्छाओं की। आवश्यक्ता एक और इच्छाएँ अनेक होती है। आवश्यक्ता की पूर्ति होने पर पुनः उत्पत्ति नहीं होती। इच्छाकर्ता तो बेचारा प्रवृत्ति द्वारा केवल शक्तिहीनता ही प्राप्त करता है